मैंने कहा , ज़माना पूरा हो मेरी ,
मैंने सोचा नहीं ज़माने में कई सोच हैं ।
अलग अलग अपरिचित सा ,
कुछ अनकहा अनसुना सा ।
बेपरवाह मन इस सोच में डूबता रहा ,
जब सोच अलग तो मन क्यों नहीं ।
फिर ख़्वाब किसी की, इससे परे क्यों रहे ,
दुविधा बस चंचल मन की है ,
पुराने किसी मनमीत की नहीं ।
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